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बालाजी मंदिर, वैशाली - Balaji Mandir, Vaishali

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सनवैली इंटरनेशनल स्कूल वैशाली के पास श्री हनुमंत लाल के बालाजी रूप को समर्पित  श्री मनोकामना सिद्ध बालाजी मंदिर  स्थित है। भगवान श्री बालाजी भक्तों की सभी इच्छाओं को पूरा करने वाले हैं, इसलिए मंदिर को मनोकामना सिद्ध कहा जाता है। आस-पास के क्षेत्र में मंदिर को  वैशाली बालाजी मंदिर  के नाम से जाना जाता है। मंदिर में प्रवेश करते ही, आपको हनुमान जी की विशाल मूर्ति के दर्शन होंगे, जिनके एक हाथ में गदा तथा दूसरे हाथ में  द्रोनगिरी पर्वत  है। द्रोनगिरी वही पर्वत है, जिसे  संजीवनी बूटी  न पहचानने के कारण हनुमान जी पूरा पर्वत ही उठा लाए थे। बालाजी मंदिर वैशाली में होने पर भी, मंदिर तक पहुँचने के लिए कौशाम्बी मेट्रो स्टेशन सबसे नजदीक रहेगा। मंगलवार और शनिवार के दिन मंदिर में भक्तों की संख्या अन्य दिनों की अपेक्षा अधिक होती है।

श्री हनुमान साठिका

॥ चौपाइयां ॥ जय जय जय हनुमान अडंगी । महावीर विक्रम बजरंगी ॥ जय कपीश जय पवन कुमारा । जय जगबन्दन सील अगारा ॥ जय आदित्य अमर अबिकारी । अरि मरदन जय-जय गिरधारी ॥ अंजनि उदर जन्म तुम लीन्हा । जय-जयकार देवतन कीन्हा ॥ बाजे दुन्दुभि गगन गम्भीरा । सुर मन हर्ष असुर मन पीरा ॥ कपि के डर गढ़ लंक सकानी । छूटे बंध देवतन जानी ॥ ऋषि समूह निकट चलि आये । पवन तनय के पद सिर नाये॥ बार-बार अस्तुति करि नाना । निर्मल नाम धरा हनुमाना ॥ सकल ऋषिन मिलि अस मत ठाना । दीन्ह बताय लाल फल खाना ॥ सुनत बचन कपि मन हर्षाना । रवि रथ उदय लाल फल जाना ॥ रथ समेत कपि कीन्ह अहारा । सूर्य बिना भए अति अंधियारा ॥ विनय तुम्हार करै अकुलाना । तब कपीस की अस्तुति ठाना ॥ सकल लोक वृतान्त सुनावा । चतुरानन तब रवि उगिलावा ॥ कहा बहोरि सुनहु बलसीला । रामचन्द्र करिहैं बहु लीला ॥ तब तुम उन्हकर करेहू सहाई । अबहिं बसहु कानन में जाई ॥ असकहि विधि निजलोक सिधारा । मिले सखा संग पवन कुमारा ॥ खेलैं खेल महा तरु तोरैं । ढेर करैं बहु पर्वत फोरैं ॥ जेहि गिरि चरण देहि कपि धाई । गिरि समेत पातालहिं जाई ॥ कपि सुग्रीव बालि की त्रासा । निरखति रहे राम मगु आसा ॥ मिले राम

*तिरुपति बालाजी की कथा! 🙏🏻🌹*

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वैंकटेश भगवान को कलियुग में बालाजी नाम से भी जाना गया है। पौराणिक गाथाओं और परम्पराओं से जु़डा संक्षिप्त इतिहास यहां प्रस्तुत है- प्रसिद्ध पौराणिक सागर-मंथन की गाथा के अनुसार जब सागर मंथन किया गया था तब कालकूट विष के अलावा चौदह रत् ‍ ‌न निकले थे। इन रत् ‍ ‌नों में से एक देवी लक्ष्मी भी थीं। लक्ष्मी के भव्य रूप और आकर्षण के फलस्वरूप सारे देवता, दैत्य और मनुष्य उनसे विवाह करने हेतु लालायित थे, किन्तु देवी लक्ष्मी को उन सबमें कोई न कोई कमी लगी। अत: उन्होंने समीप निरपेक्ष भाव से खड़े हुए विष्णुजी के गले में वरमाला पहना दी। विष्णु जी ने लक्ष्मी जी को अपने वक्ष पर स्थान दिया। यह रहस्यपूर्ण है कि विष्णुजी ने लक्ष्मीजी को अपने ह्वदय में स्थान क्यों नहीं दिया? महादेव शिवजी की जिस प्रकार पत् ‍ ‌नी अथवा अर्धाग्नि पार्वती हैं, किन्तु उन्होंने अपने ह्वदयरूपी मानसरोवर में राजहंस राम को बसा रखा था उसी समानांतर आधार पर विष्णु के ह्वदय में संसार के पालन हेतु उत्तरदायित्व छिपा था। उस उत्तरदायित्व में कोई व्यवधान उत्पन्न नहीं हो इसलिए संभवतया लक्ष्मीजी का निवास वक्षस्थल बना। एक बार धरती पर विश्

हनुमान जी का यह मंत्र, अतिशीघ्र होते हैं प्रसन्न

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श्री राम के परम भक्त हनुमान जी महाराज आठ चिरंजीवियों में से एक है| हनुमान जी जल्द ही प्रसन्न होने वाले देवताओं में से एक हैं और इसके लिए कुछ चमत्कारी मंत्र यहांं बताए जा रहे हैं |  देवताओं में भगवान शिव के बाद बजरंगी बली ही ऐसे देवता हैं, जो अपने भक्तों पर अतिशीघ्र प्रसन्न होते हैं. छोटे-छोटे उपायों व मंत्रों से हनुमान जी प्रसन्न हो जाते हैं. सच्चे मन से श्रद्धापूर्वक की गई पूजा कभी बेकार नहीं जाती |  ऐसे ही उपायों में से एक है हनुमत कवच | इसमें अपार शक्ति है साथ ही अद्भुत फलदायी है | हम आपको बता दें कि इसे खुद भगवान श्रीराम ने रचा है | इतना ही नहीं, इस हनुमत कवच का पाठ प्रभु श्रीराम ने स्वयं रावण से युद्ध करते समय किया था | नाम पाहरू दिवस निसि ध्यान तुम्हार कपाट । लोचन निज पद जंत्रित जाहिं प्रान केहिं बाट ॥‘ नाम पाहरू दिवस निसि ‘ ….. सीता जी के चारों तरफ आप के नाम का पहरा है । क्योंकि वे रात दिन आप के नाम का ही जप करती हैं । सदैव राम जी का ही ध्यान धरती हैं और जब भी आँखें खोलती हैं तो अपने चरणों में नज़र टिकाकर आप के चरण कमलों को ही याद करती रहती हैं तो ‘ जाहिं प्रान केहिं ब

श्री पंचमुख-हनुमत्-कवच – हिन्दी अर्थ

॥हरि: ॐ ॥   ॥श्री पंचमुख-हनुमत्-कवच ॥   (मूल संस्कृत और हिन्दी अर्थ)   ॥अथ श्रीपञ्चमुखहनुमत्कवचम् ॥    श्रीगणेशाय नम:|  ॐ अस्य श्रीपञ्चमुखहनुमत्कवचमन्त्रस्य ब्रह्मा ऋषि:| गायत्री छंद:| पञ्चमुख-विराट् हनुमान् देवता| ह्रीम् बीजम्| श्रीम् शक्ति:| क्रौम् कीलकम्| क्रूम् कवचम्| क्रैम् अस्त्राय फट् | इति दिग्बन्ध:|  इस स्तोत्र के ऋषि ब्रह्मा हैं, छंद गायत्री है, देवता पंचमुख-विराट-हनुमानजी हैं, ह्रीम् बीज है, श्रीम् शक्ति है, क्रौम् कीलक है, क्रूम् कवच है और ‘क्रैम् अस्त्राय फट्’ यह दिग्बन्ध है| ॥श्री गरुड उवाच ॥ अथ ध्यानं प्रवक्ष्यामि शृणु सर्वांगसुंदर| यत्कृतं देवदेवेन ध्यानं हनुमत: प्रियम् ॥१॥   गरुडजी ने कहा – हे सर्वांगसुंदर, देवाधिदेव के द्वारा, उन्हें प्रिय रहने वाला जो हनुमानजी का ध्यान किया गया, उसे स्पष्ट करता हूँ, सुनो|  पञ्चवक्त्रं महाभीमं त्रिपञ्चनयनैर्युतम्| बाहुभिर्दशभिर्युक्तं सर्वकामार्थसिद्धिदम् ॥​२​॥   पाँच मुख वाले, अत्यन्त विशाल रहने वाले, तीन गुना पाँच  यानी पंद्रह नेत्र (त्रि-पञ्च-नयन) रहने वाले ऐसे ये पंचमुख-हनुमानजी हैं|  दस हाथों से युक्त, स